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सतगुरु कबीर साहिब की समाधि मनुवाद की शिकार।।

सतगुरु कबीर साहिब की समाधि मनुवाद की शिकार।। यदि कांशी में निर्गुण भक्ति की धारा प्रवाहित हुई है और यहीं इस के स्रोत का जन्म हुआ है, तो इस कथन में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं हैं क्योंकि इसी पवित्र धरती पर ही गुरुओं के गुरु रविदास जी महाराज ने जन्म ले कर सगुण भक्ति के उपासकों की नींद हराम की थी, उन के साथ ही सतगुरु कबीर साहिब ने भी उन्हीं के पदचिंहों पर चल कर, उन की विचारधारा का अनुसरण करते हुए सगुण धारा के अडंबरों, पाखण्डों, ढोंगों और अत्याचारों का भांडाफोड़ किया था जिस की कीमत कबीर जी को शारीरिक और मानसिक अत्याचार सहन कर के चुकानी पड़ी थी। फक्कड़ कबीर साहिब:--- सतगुरु कबीर साहिब ने कभी भी अपने शरीर की चिंता नहीं, कभी भी शासक वर्ग की तलवारों का खौफ नहीं खाया और अपनी पैनी कलम की धार से मनुवादी और इस्लामिक ढोंगों का कतल करते ही गए। कबीर जी अपनी निर्भीकता और अखड़ता को उजागर करते हुए फरमाते हैं ----- कबीरा खड़ा बाजार में लिए मुराड़ा हाथ। जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ। कबीर जी अपनी क्रांतिकारी और अग्नि पथ पर चलने वाली तीखी धार का वर्णन करते कि कबीर कातिलों से भरे हुए बाजार में खड़ा हो कर

महामना सतगुरु कबीर जी का कांशी मठ।।

महामना कबीर जी महाराज का उपेक्षित मठ।। मनुवादी तिलकधारी खुद तो अंधेरे में ही जीवन जीते हैं मगर अगर कोई प्रकाश करे भी तो इन को वह प्रकाश और प्रकाश करने वाला मूलनिवासी सूर्य भी पसंद नहीं आता है। सतगुरु कबीर ने मनुवादी धृतराज व्यवस्था को मानवीय आधार पर चलाने के लिए तर्कहीन सिद्धांतों का खंडन किया था, जिसके कारण वे हिंदुओं की आँख का तिनका बने हुए हैं, इसी कारण उन का अपमान किया जा रहा है, जिस का सबूत कांशी कबीर मठ है। दर्शनशास्त्र के अध्येता कबीर साहिब:-- - अगर समूचे विश्व में बिहंगम दृष्टि डाली जाए तो कहीं भी कोई भी ऐसा मनुवादी विद्वान, दर्शन शास्त्र का अध्येता नहीं हुआ है, जो क्रांतिकारी कबीर साहब के तुल्य चिंतक, विचारशील, विवेकशील साधक और विचारक हुआ हो। कबीर साहिब का साहित्य उन के दर्शन को प्रदर्शित करता है। उन के लिखे दोहे और शब्दों को गा गा कर के खानाबदोश भी अमीर हो गए हैं। उन के दोहों और शब्दों के एक-एक शब्द में जो सार छुपा हुआ है, उस का वर्णन करना किसी भी दर्शनाचार्य के वश का नहीं है। कबीर साहब फरमाते हैं, कि----- जल में कुंभ है कुंभ में जल बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जलहिं समान

क्रांतिकारी शूरवीर गुरु रविदास जी महाराज।।

क्रांतिकारी शूरवीर गुरु रविदास जी महाराज!! चौहदबीं, पंद्रहबीं शताब्दी में भारत के जनता राजाओं, बादशाहों की तलवारों की खनखनाहटों, तोपों के बिस्फोटों के साए में जी रही थी। विदेशी मुस्लिम बादशाहों के दिलों में लोगों के प्रति कोई दया, दर्द नहीं होता था। भारत के राजपूत राजा भी विलासिता के समंदर में डूब कर आनंदपरस्ती करते हुए जिंदा रहने का यत्न कर रहे थे, जनता जाए भाड़ में। ऐसी परिस्थितियों में जब भारत की जनता की शुद्ध लेना वाला कोई भी मनुवादी नहीं बचा, तब जनता की सुरक्षा का दायित्व केवल गुरु रविदास जी महाराज ने निभाया था। तभी तो स्वामी ईशर दास जी महाराज ने गुरु आदि प्रगास ग्रंथ में फरमाया है कि--- रविदास सोई शूर भला जउ लरै धरम कै हेत। अंग अंग काटि भूइं गिरै तउ वी ना छांडे खेत। गुरु रविदास जी महाराज फरमाते हैं, कि वही शूरवीर अच्छा होता है, जो धर्म की रक्षा के लिए लड़ता है। चाहे उस के शरीर के अंग अंग कट कट कर धरती पर गिर जाएं, वह शूरवीर तब भी रणक्षेत्र को नहीं छोड़ता है,  जो व्यक्ति मानवता की रक्षा के लिए, अपने धर्म का निर्वहन करता है, जो अपने प्राणों की बाजी लगा कर के रणभूमि के यज्ञ में

मैं+दागिन=मैदागिन चौक कांशी।।

मैं+दागिन=मैंदागिन मुझ को दाग (कलंक) लग गया। मैदागिन चौक कांशी शहर !! गुरु की नगरी कांशी:--- गुरु रविदास जी महाराज के प्रकाश की पवित्र भूमि कांशी नगरी है, जिसे गुरु की नगरी कहा जाए तो बिल्कुल तर्क संगत और सत्य होगा। सारे कांशी शहर का कोना कोना गुरु जी के इतिहास का हिस्सा है, जिसे मिटाने के लिए मनुवादी चापलूसों, चारणों, भाटों, साहित्यकारों, कवियों और लेखकों ने कई कुतर्कपूर्ण किस्से, कथाएँ, कहानियाँ घड़ी हुई हैं, जिन का वास्तविकता से दूर तक कोई सम्बन्ध और रिश्ता नहीं है। गुरु रविदास जी महाराज के दर्शन करने के लिए सारे संसार के शासक, बादशाह और सतपुरुष कांशी नगरी में आते थे, जिस के बारे में कांशी की धरती खुद बोलती है। गुरु रविदास से मीराबाई का साक्षात्कार:--- चितौड़गढ़ की रानी मीराबाई पति विहीन होने पर मानसिक रूप से विक्षिप्त हो कर दुखी रह रही थी, जब उस को गुरु रविदास जी के बारे में ज्ञात हुआ था, तब वह उन के दर्शन करने के लिए पवित्र नगरी कांशी आई थी और जिस पवित्र स्थान पर उस ने गुरु रविदास जी महाराज के दर्शन किये थे, उस स्थान के भाग्य खुल गए थे, इसी कारण ये जगह भी ऐतिहासिक बन कर इतिहा

गुरु रविदास जी का लोप स्थान गढ़ाघाट उर्फ गढवा घाट।।

गुरु रविदास जी का लोप स्थान गढ़ाघाट उर्फ गढ़बाघाट !!! १६ फरवरी २०२३ को कांशी स्थित गढ़वाघाट के दर्शन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिस की चकाचौंध को देख कर के आंखें भी चुंधिया हो गई, मन में हैरानी हो रही थी कि इतना अपार धन-दौलत संचित करके गढ़वाघाट में भवनों का निर्माण किया गया है। अति सुंदर मोरियां, मेहराबें, अट्टालिकाएँ, चित्रकारी, नक्काशी कार्य और अत्यंत मनमोहक ढंग से उत्कीर्ण किए गए दरवाजे भवन को चार चाँद लगा रहे हैं, जिस के पीछे एक बहुत बड़ा राज छुपाया गया है। परिसर:--- कम से कम दो हजार वर्ग मीटर में गढ़वाघाट भवन का निर्माण किया गया है, जिस की दीर्घ मीनार, गगनचुंबी गुंबद, असंख्य कमरे और सुसज्जित प्रांगण देखते ही बनते हैं। सारा प्रांगण मैटलड किया हुआ है, ऐसा लगता है कि धरती के ऊपर स्वर्ग का उतारा गया है। अरबों रुपए पानी की तरह बहा कर के इस अति अद्वितीय और आलीशान भवन का निर्माण किया गया है। ऐतिहासिक वृद्ध वृक्ष:--- लगता है कि जिस समय इस परिसर का नाम गढ़ाघाट से गढ़वाघाट किया गया है, तभी वहाँ वृक्षारोपण किया गया था, जिस के प्रमाण वहाँ पर उपस्थित वृद्ध वृक्ष गुरु रविदास जी महाराज के इ

गुरु रविदास आदद्दुआरा **सीर गोवर्धन** कांशी!

गुरु रविदास आददुआरा **श्री सीरगोवर्धन** कांशी।। गाँव नैपुरा से दो किलोमीटर की दूरी पर गाँव सीरगोवर्धन हैं, जो गुरु जी के इतिहास का प्रमाण प्रतीत होता है, क्योंकि इसी स्थान पर चँवरवंश के वंशज आज भी निवास करते हैं, जो आज भी वहीं नारकीय जीवन जी रहे हैं। गुरु रविदास चौक से जाने वाली सड़क से गुजरते समय सब से पहले सीर गोवर्धन स्थल आता है, उस के पांच सौ मीटर की दूरी पर लौटूं वीर मंदिर से हो कर गढ़वाघाट उर्फ गढ़ाघाट आते हैं, इन तीनों ही स्थानों का गुरु रविदास जी महाराज के जीवन और इतिहास से आत्मिक संबंध ज्ञात हो रहा है। सीर गोवर्धनपुर का अवलोकन:--- सीर गोवर्धन की स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसी आर्यों ने भारत के मूलनिवासियों की उस समय बनाई थी, जब उन्होंने भारत को अपना गुलाम बनाया था। आर्यों ने चँवरवंश के लड़ाकों को दण्ड स्वरूप ऐसे निर्जन स्थलों पर वसाया था जहाँ नर्क ही नर्क, नदी-नाले, गन्दगी के ढेर और मुशीबतों के फंदे लगे हुए होते थे, जिन को आज भी गाँव सीर गोवर्धन में देखा जा सकता है। सीरगोवर्धन नामकरण :--- चँवर राज वंश उर्फ चमार वंश की नगरी सीर गोवर्धन का नामकरण शंकाओं के घेरे में घिरा हुआ लगत

गुरु की नगरी कांशी में *गुरु रविदास सदना* इतिहास।।

गुरु की नगरी कांशी में * गुरु रविदास-सदना* इतिहास!! जब से युरेशयन आर्यों ने भारत की देवभूमि पर अपना अधिप्तय जमाया हुआ है, तभी से इस पवित्र भूमि को ग्रहण लगा हुआ है। आदि पुरुष से चली आ रही मूलभारत की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का नामोनिशान मिटाया जा रहा है, जिस की घृणित कड़ी में गुरु की नगरी कांशी और गुरु रविदास जी महाराज के इतिहास को नेश्तनाबूद किया जा रहा है। जो कुछ बाकी बचा हुआ है उस को भी नये नामकरण कर के बदला जा रहा है। सिंकदर लोधी को जब पता चला था कि कांशी में कोई साधु, संत, फकीर, तिलकधारी ब्राह्मणों के ज्ञान की हवा निकाल कर, उनके झूठे अडंबरों, पाखण्डों का पर्दाफ़ास कर रहे हैं, जिस से आकर्षित हो कर उसने गुरु रविदास जी महाराज की दिव्य शक्ति का लाभ उठाने के लिए योजना बनाई थी, जिस का सूत्रधार सदना कसाई को बनाया गया और उसे अपना राजदूत बना कर, गुरु रविदास महाराज के पास भेज कर इस्लाम धर्म में शामिल करने के लिए रजामंद करने का प्रयास किया था। कांशी में सदना कसाई:--- बादशाह सिकंदर लोधी ने, सदना कसाई को बड़े विशाल लाव-लश्कर के साथ, रथ पर सवार कर के कांशी भेजा था। उन दिनों गुरु रविदास जी म